Difference Between Love and Attraction in Hindi
Difference between love and attraction in Hindi हम सभी ये मानते हैं की हमें जीवन में कभी न कभी, किसी न किसी स्थान पर प्रेम होता ही है | तो वो चाहे माँ बाप को अपनी औलाद से हो| विद्वान को ज्ञान से, किसी कलाकार को कला से हो जाये इत्यादि |
तो क्या वास्तविक रूप में ये प्रेम ही है, मोह भी तो हो सकता है |
अब आप सवाल करेंगे की मोह और प्रेम में फिर अंतर कैसा है ?
फ़र्क है बंधन का जो आपको बांधता है वो मोह है, प्रेम नहीं |
प्रेम वो है जो आपको मुक्त करके विकास की ओर अग्रसर करे |
चलिए आपको एक उदाहरण देता हूँ कुछ माता पिता अपनी संतान को किसी दूसरे नगर में पढ़ने के लिए भेज नहीं पाते| अपनी संतान उसके दोस्तों के साथ खेलने के लिए भेज नहीं पाते | चिंतित रहते हैं की कहीं उनकी संतान को दुःख न पहुँचे | और इसीलिए उन्हें बाँध कर रखते हैं |
ये प्रेम नहीं है | ये ही मोह है और यदि ये प्रेम होता तो वो चाहते की संतान माता पिता की छाँव से बाहर निकलकर इस संसार को देखें| उसे समझे, उससे ज्ञान लें | अपने अनुभवों से सीखकर, अपने स्वयं का एक व्यक्तित्व बनायें |
याद रखियेगा, मोह से डर जन्म लेता है और प्रेम केवल आनंद का जन्मदाता है | इसीलिए बांधिए नहीं, स्वतंत्र कीजिये | क्योंकि इसी को प्रेम कहते हैं |
क्या है प्रेम ?
ढाई अक्षर का एक छोटा सा शब्द जिसको इस संसार के बाकी शब्द मिलकर भी विस्तारपूर्वक नहीं समझा सकते | प्रेम तो बिलकुल संक्षिप्त सा नाम है जिसको चाँद तारों और बड़े वचनों से जोड़कर, मुश्किल बना दिया जाता है |
किसी से प्रेम का अर्थ नहीं की उसे प्राप्त करना है बल्कि प्रेम का वास्तविक महत्व तो त्याग करने में हैं |
प्रेम का अर्थ दिन में सौ बार ये बोलना नहीं है की मैं आपसे कितना प्रेम करता हूँ बल्कि प्रेम का अर्थ तो यह है की बिना कुछ कहे ही, बिना किसी श्रवण के आभास हो जाए |
क्या प्रेम उसी से होता है जो आँखों से दिखाई दे ?
अगर ऐसा होता तो फिर एक माँ अपने बच्चे को तब क्यों प्रेम करती है जब वो उसके गर्भ में रहता है और दिखाई नहीं देता |
क्या स्त्री पुरुष का प्रेम ही प्रेम कहलाता है ?
अगर ऐसा भी होता तो इस संसार के महापुरुषों ने किस लगन से अपने लक्ष्य प्राप्त किये ?
वो भी प्रेम ही करते थे !
परन्तु प्रेम किया जाता है या हो जाता है ?
प्रेम लिया जाता है या दिया जाता है ?
अरे प्रेम तो ही समर्पण का दूसरा नाम है| वह समर्पण जो कोई माता पिता अपनी संतान का जीवन सँवारने के लिए करते है | वह समर्पण जो कोई मनुष्य तब करता है जब वह अपने जीवन के लक्ष्य के रास्ते पर चलता है| वह समर्पण जिसके बदले में कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती |
परन्तु जब प्रेम में क्रोध या शंकाएं होने लगे तो समझना वो प्रेम है ही नहीं | प्रेम में आंसू आना तो स्वाभाविक हो सकते हैं परन्तु उन आंसुओं के लिए प्रेम को ही उल्टा दोष दिया जाए, कमियाँ निकाली जाए तो उस प्रेम को मोह का नाम देकर बाहर निकल जाना चाहिए |
जो यह कहते हैं की प्रेम समाप्त हो गया| उनको अपनी आँखों से अपने ही बारे में सोचने वाली पट्टी हटाकर त्याग की पट्टी बांधना चाहिए |
प्रेम तो शीतल वायु के जैसी है जो पहले भी थी, अब भी है और हमेशा रहती है | यह होकर भी नहीं दिखती | और जब लगता है की नहीं है , तब भी होती है |
मात्र इसके एहसास की आवश्यकता है |
प्रेम के बिना तो इस संसार का चक्र एक क्षण भी नहीं घूम सकता| यह किसी न किसी वेश में मनुष्य के साथ होता ही है | और दूसरे रूप में होने के कारण वह हमें दिखाई नहीं देता |
इसके रूप अनेक होते हैं लेकिन श्रद्धा एक ही होती है | जो श्रद्धा मीरा और राधा ने भगवान श्री कृष्ण के लिए की थी | जो श्रद्धा हनुमान जी ने भगवान श्री राम के चरणों में लगाई थी | जो श्रद्धा एकलव्य ने पत्थर में अपना गुरु देखकर, धनुष विद्या सीखने में लगाई थी |
और प्रेम के बारे में क्या बताऊँ ?
जब तक ये संसार है तब तक प्रेम है और जब तक प्रेम है तब तक ही ये संसार है |
प्रेम कितना बड़ा है ?
जितनी उसकी अनुभूति आप कर सकते हैं |
प्रेम की आयु कितनी है ?
जब तक स्वार्थी नहीं बनते |
प्रेम में प्रसन्नता कब तक है ?
जब तक प्रेम पर अधिकार न जमाया जाए |
क्या प्रेम में दुख होना साधारण है ?
भला जिसमे दुःख हो वह प्रेम ही क्या ! प्रेम तो वह जिसमे मन शांत है | किसी प्रकार की कोई इच्छा नहीं है| किसी पर आरोप नहीं है| एक पल में खुश और अगले पल में दुखी होना भी नहीं है |
जिसमे नींद नहीं आये वह भी प्रेम नहीं है| किसी के छोड़ के जाने के बाद अगर अच्छी भावना के बजाय आंसू आये तो वह भी प्रेम नहीं है | वह तो दुखी होने का एक कारण है क्योंकि प्रेम में पाने जैसा कोई शब्द नहीं है | और ये सब प्रेम के लक्षण है ही नहीं | इसलिए इसे केवल मोह और इच्छा समझकर छोड़ देना चाहिए |
नहीं तो ये रास्ते से भटका देता है |
प्रेम कभी भी किसी और दूसरे भाव को उत्पन्न नहीं करता प्रेम तो स्वयं एक अलग भाव है | बाकी के रोने आरोप लगाने वाले और अधिकार ज़माने वाले भाव को अलग से अपने स्वार्थ से ही जन्म देता है |
जब आप सड़क पर चलते हुए किसी बूढ़े अंधे व्यक्ति को सही रास्ता दिखाते हो तो वह भी प्रेम ही है | कोई संगीत से प्रेम करता है तो कोई जानवरों से प्रेम करता है | और वास्तव में तो यही वास्तविक प्रेम है जिसमे हर बार मन को शांति ही मिलती है |
जो प्रेम को सभी दुखो का कारण मानता है उसकी प्रेम की परिभाषा कुपोषण से ग्रसित है | भला सूरज भी कभी अंधकार दे सकता है ?
इसलिए इन सब बातों को समझकर ये जानो की आप प्रेम में हो या मोह में ? जय श्री कृष्णा, जय हिन्द वंदेमातरम्
मोह क्या है?
मोह का अर्थ होता है एक ऐसा आकर्षण जिससे छूटा न जा सके| ऐसा खिंचाव जिस पर कोई नियंत्रण न कर सके| यही होता हा न मोह, विवशता में हम खींचे चले जाते है | कुछ प्राप्त करने के लिए हम अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं | वो मोह का पात्र कोई मनुष्य हो सकता है, सत्ता हो सकती है | संपत्ति हो सकती है | कोई वस्तु हो सकती है या शराब या जुएँ जैसा कोई व्यसन हो सकता है |
जिस तरह चुम्बक लोहे से छूट नहीं सकता, ठीक वैसे ही मनुष्य अपने मोह से छूट नहीं पाता | और हम मानते हैं की मोह केवल हमारे प्रेम का गहरा रूप है | क्या ये सत्य नहीं ??
क्या हम मोह को ही प्रेम नहीं समझते ?
और फिर विचारकों ने संतो ने मोह के बंधन से बाहर निकलने का उपदेश दिया है | ऐसा क्यों है ? मोह और प्रेम में भेद क्या है ?
हम बात कर रहे हैं मोह के विषय में ! हमें तो सदैव ही अपने मन का मोह प्रेम लगता है परन्तु गहराई से विचार करेंगे तो हम तुरंत ही पाएंगे की प्रेम और मोह के बीच एक बुनियादी भेद है |
प्रेम होता है तब हम किसी के सुख की इच्छा करते हैं जब मोह होता है तब हम किसी के सुख की कामना करते हैं | बस इतना सोचने पर प्रेम और मोह का भेद तुरंत ही समझ आ जाता है |
किसी व्यक्ति के प्रति जब हमारे मन में प्रेम होता है तब हम उसे सुख देने का प्रयास करते हैं | उसके प्रति मोह होता है तब हम उसके माध्यम में स्वयं सुख प्राप्त करने का प्रयास करते हैं | क्या ये सत्य नहीं ?
प्रेम के केंद्र में हम नहीं होते| मोह के केंद्र में सिर्फ हम होते हैं | ये तो व्यक्ति की बात हुई |
परन्तु किसी वस्तु के प्रति प्रेम और मोह में क्या ऐसा ही भेद होता है ? विचार कीजिये
अगर हमें सत्ता और पद से प्रेम है तो हम क्या करेंगे?
स्वयं अपने आपको सत्ता या पद के लिए योग्य बनायेंगे परन्तु अगर मोह है तो हम उसे प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का अनुचित काम करेंगे तैयार हो जायेंगे |
संपत्ति के लिए प्रेम है तो हम मेहनत करेंगे| अगर मोह है तो चोरी करेंगे | क्या ये सत्य नहीं ?
जिस व्यक्ति या वस्तु के लिए हमें मोह होता है,, हमारे सारे सुख का आधार हम उसे ही मान लेते हैं | जब वो हासिल नहीं हो पाता तब हमारे मन में विक्षिप्तता प्रवेश करती है| जूनून पैदा हो जाता है | रात दिन हम उस व्यक्ति या वस्तु को हासिल करने के बारे सोचने लगते हैं |
उसे प्राप्त करने के लिए उचित अनुचित का विचार नहीं करते | यही वजह है की मोह से भरा मनुष्य स्वयं को और समाज को हानि पहुँचाता है | तो क्या इस मोह से बचना इतना कठिन है ?
नहीं, मोह से बचने का सरल सा साधन है | मोह को प्रेम में परिवर्तित कर दें | अर्थात बस इतना जान लें की हमारा सुख और दुःख किसी व्यक्ति या वस्तु के कारण नहीं हो सकता| सुख और दुःख तो हमारे अन्दर का व्यवहार है, हमारी आत्मा का स्वाभाव है |
जैसे ही हम किसी को अपने सुख का आधार मानना बंद करते हैं| क्या तुरंत ही हमारा पागलपन नहीं छूट जाता |
एक छोटी सी बात से ये विचार समझा जा सकता है| बचपन में खेल के लिए पागलपन था| बड़े होने पर खेल के प्रति प्रेम अवश्य है परन्तु अब पागलपन नहीं| अर्थात मोह बाँधने का प्रयास करता है इसलिए सदैव पीड़ा का कारण बनता है |
प्रेम आजाद करता है इसीलिए हमेशा ही सुख का आधार बनता है | इस पर विचार जरूर कीजियेगा
प्रेम और आकर्षण में अंतर
1- आकर्षण कुछ ऐसा होता है की जो जल्द ही ख़त्म हो जाता है| आकर्षण में क्षणिक सुख होता है | लेकिन प्रेम में इसका उल्टा होता है क्योंकि प्रेम में ख़ुशी मिलती है जो भी आप हमेशा के लिए चाहते हैं | हम इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं प्रेम लम्बे समय की बात है जबकि आकर्षण हमें कुछ ही वक़्त के लिए हासिल हो पाता है |
प्रेम में हम अपने चाहने वाले के लिए कितना भी बड़ा त्याग कर सकते हैं जबकि अट्रैक्शन में ये असंभव हो जाता है| प्रेम और आकर्षण में ये एक बड़ी भिन्नता विद्यमान है|
प्रेम यानि स्नेह , लगाव, चाहत अनेक नाम है इस भावना के | हम सब किसी न किसी से प्रेम करते हैं| माता पिता से प्रेयसी से या पत्नी से, संतानों से परिवार या मित्रों से |
माता पिता से हमें सुरक्षा प्राप्त होती है| पत्नी या प्रेयसी से आधार प्राप्त होता है| संतानों से अभिमान और परिवार तथा मित्रों से संतोष मिलता है | अर्थात जीवन में सारे सुखों का अनुभव हमें प्रेम से ही प्राप्त होता है | और फिर भी वही प्रेम का सम्बन्ध सदैव दुःख का कारण बन जाता है, ऐसा क्यों होता है ?
प्रेम का स्वाद भी कभी मीठा तो कभी कड़वा क्यों लगता है ?
क्या हम वास्तव में प्रेम को समझ ही नहीं पाते ?
इसे समझने के लिए हमें याद करना होगा प्रेम या चाहत की अनुभूतियों का |
क्या विचार चलते हैं हमारे मन में जब हम किसी से प्रेम करते हैं ?
जब गहरे प्रेम का अनुभव होता है तो हम सोचते हैं की उस व्यक्ति को हम सारा सुख दे दें | सब कुछ दें जो हमारे पास है बदले में हमें किसी वस्तु की इच्छा नहीं होती | क्या ये सत्य नहीं ?
जब हम किसी को चाहते हैं तो हम उससे कुछ नहीं चाहते| प्रेम वास्तव में उस सम्बन्ध को कहा जाता है जब उस सम्बन्ध से हमें कोई आशा, कोई चाह, कोई मांग न हो | जैसे ही कोई मांग मन में प्रवेश करती है वैसे ही प्रेम ह्रदय से विलुप्त हो जाता है | चला जाता है जैसे बीमारी के कारण जीभ मैली हो जाती और मीठा फल भी कड़वा लगने लगता है |
आशा इच्छा चाह या मांग इन सबके कारण मन मैला हो जाता है और मीठा प्रतीत लगने वाला प्रेम भी कड़वा बन जाता है | अर्थात प्रेम उस सम्बन्ध का नाम है जिसमे कोई मांग नहीं |
प्रेम महाभाव ही नहीं महारस है | प्रेम विहीन मनुष्य मांस और अस्थियों का ढेर मात्र है |