Lord Sri Krishna bhagavad Gita Quotes
संसार में हर प्राणी को किसी न किसी तरह की निर्बलता जरूर मिलती है| जैसे कोई अधिक रफ़्तार में भाग नहीं पाता तो कोई ज्यादा वजन उठा नहीं पाता| कोई गंभीर बीमारी से परेशान रहता है तो कोई पढ़ी हुई सीखों को याद में नहीं रख पाता|
ऐसे अनेको उदाहरण भी हैं,
क्या आप किसी ऐसे मानव को जानते हैं जिसे सब कुछ प्राप्त हो ?
और हम जीवन की उस एक निर्बलता को, जीवन का केंद्र मानकर जीवन जीते हैं| इस कारणवश में ह्रदय में दुःख और असंतोष रहता है सदा| निर्बलता मनुष्य को जन्म से अथवा संजोग से प्राप्त होती है | किन्तु उस निर्बलता को मनुष्य का मन, अपनी मर्यादा बना लेता है |
परन्तु कुछ मनुष्य ऐसे भी होते हैं जो अपने द्वारा किये गए पुरुषार्थ और श्रम की बदौलत, उस निर्बलता को परास्त कर देते हैं |
क्या भेद है उनमे या अन्य लोगों में ? ये आपने कभी विचार किया है ?
सरल सा उत्तर है इसका जो व्यक्ति निर्बलता से पराजित नहीं होता| जो पुरुषार्थ करने का साहस रखता है ह्रदय में, वो निर्बलता को पार कर जाता है|
अर्थात निर्बलता अवश्य ईश्वर देता है किन्तु मर्यादा, मर्यादा मनुष्य का मन ही निर्मित करता है|
स्वयं विचार कीजिये
भविष्य का दूसरा नाम है संघर्ष |
ह्रदय में आज अगर कोई इच्छा होती है और यदि पूर्ण नहीं हो पाती तो ह्रदय भविष्य की योजना बनाता है | भविष्य में इच्छा पूर्ण होगी ऐसी कल्पना करता है किन्तु जीवन, जीवन न तो भविष्य में है न तो अतीत में है| जीवन तो इस क्षण का नाम है |
अर्थात इस क्षण का अनुभव ही जीवन का अनुभव है| पर हम जानते हुए भी इतना सा सत्य समझ नहीं पाते| या तो हम बीते हुए समय के स्मरणों को लेकर समय व्यतीत करते रहते हैं या फिर भविष्य के क्षणों के लिए योजनायें बनाने में मस्त रहते हैं और जीवन, जीवन गुजर जाता है|
एक सत अगर हम अपने उर में बैठा दें की न हम भविष्य द्रष्टा बन सकते हैं न ही भविष्य के निर्माण कर्ता बन सकते हैं| हम सिर्फ धैर्य और साहस के साथ भविष्य का आलिंगन कर सकते हैं| उसके आगमन के स्वागत के लिए तैयार हो सकते हैं| तो क्या जीवन का हर पल आनन्द से नहीं भर जायेगा ?
स्वयं विचार कीजिये
ज्ञान सदैव से सिर्फ समर्पण से ही प्राप्त होता है ये हम सब जानते हैं | परन्तु समर्पण का वास्तव में क्या महत्त्व है ?
क्या हमने कभी विचार किया ?
मानव मन सदैव ही ज्ञान की प्राप्ति में, विभिन्न बाधाओं को उत्पन्न करता है| कहीं किसी दूसरे विद्वान से द्वेष हो जाता है | कभी पढ़ाये हुए पाठों पर संदेह जन्मता है | हाँ और कभी गुरु द्वारा दिया गया दंड मन को अहंकार से भर देता है |
नहीं? क्या ऐसा नहीं होता ?
न जाने कैसे कैसे विचार मन को भटकाते हैं| और मन की इसी योग्य स्थिति के कारण हम ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते | मन की योग्य स्थिति केवल समर्पण से निर्मित होती है | समर्पण मनुष्य के अहंकार का नाश करता है |ईर्ष्या, महत्वकांक्षा आदि भावनाओं को दूर कर ह्रदय को शांत करता है और मन को एकाग्र करता है |
वास्तव में ईश्वर की सृष्टि में न ज्ञान की की मर्यादा है न ज्ञानियों की| गुरु दत्तात्रेय ने तो गाय और स्वान से भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था | अर्थात विषय ब्रह्म के ज्ञान का हो या जीवन के ज्ञान का या गुरुकुल में प्राप्त होने वाले ज्ञान का| इसकी प्राप्ति के लिए गुरु से अधिक महत्व है उस गुरु के प्रति हमारा समर्पण ! क्या ये सत्य नहीं ?
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसा क्षण अवश्य आता है जब सारे स्वप्न सारी आशाएं सारे दृश्य भस्म हो जाते हैं | जीवन के सारे आयोजन ही बिखर जाते हैं| एक ओर धर्म होता है और दूसरी ओर दुःख| इसी को धर्म संकट कहते हैं | जब धर्म का वहन ही संकट हो और धर्म का त्याग दुःख हो |
विचार कीजिये कभी स्वजन की विरुद्ध सत्य बोलने का अवसर प्राप्त हो जाता है कभी ठीक दरिद्रता के समय सरलता से चोरी करने का मार्ग प्राप्त हो जाता है | कभी किसी शक्तिशाली राजनेता या राजा के कर्मचारी का अधर्म प्रकट हो जाता है| सभी के जीवन में ऐसी घटना बनती ही रहती है |
अधिकांशतः प्राणी इस प्रकार के क्षण को धर्मसंकट के रूप में पहचान ही नहीं पाते| ऐसे ही मनुष्य को किसी प्रकार के संघर्ष का एहसास ही नहीं होता| बिलकुल सहजता से आनंद की ओर खींचे चले जाते हैं जैसे मक्खी गुड़ की ओर खिंची चली जाती है |
वास्तव में धर्म संकट का क्षण ईश्वर के निकट जाने का क्षण होता है | यदि हम संघर्षों से भयभीत न हों, सुख की ओर आकर्षित न हों, अपने धर्म पर सुदृढ़ रहें तो परमेश्वर से दूर नहीं|
पवन से युद्ध करने वाला पत्ता यदि पेड़ से गिरता है तो भी आकाश की ओर उठता है पवन से लड़ने वाली घास वहीँ भूमि पर रह जाती है | अर्थात धर्मसंकट की इस क्षण में अगर हम उस संकट को ही हटा दें तो सुख तो हासिल होता है जीवन बढ़ जाता है परन्तु क्या चरित्र ह्रास नहीं होता ? क्या आत्मा दरिद्रता से ग्रसित नहीं हो जाती ? क्या परमात्मा से दूरी नहीं बढ़ती| स्वयं विचार कीजिये |
दो व्यक्ति जब निकट आते हैं तो एक दूसरे के लिए सीमाएं और मर्यादाएं निर्मित करने का प्रयत्न अवश्य करते हैं| हम अगर सारे संबंधों पर विचार करें तो देखेंगे की सारे संबंधों का आधार यही सीमाएं हैं जो हम दूसरों के लिए निर्मित करते हैं और अनजाने में भी कोई व्यक्ति इन सीमाओं को तोड़ता है तो उसी क्षण हमारा ह्रदय क्रोध ग्रस्त हो जाता है | वास्तव में इन सीमाओं का क्या रूप है ? क्या हमने कभी विचार किया?
सीमाओं के द्वारा हम दूसरे व्यक्ति को निर्णय करने की अनुमति नहीं देते, अपना निर्णय उस व्यक्ति पर थोपते हैं | अर्थात किसी की स्वतंत्रता को अस्वीकार करते हैं हम | और जब स्वतंत्रता को अस्वीकार किया जाता है तो उसका ह्रदय दुःख से भर जाता है | और जब वो सीमाओं को तोड़ता है तो हमारा ह्रदय क्रोध के आगोश में भर जाता है | क्यूँ ऐसा नहीं होता ?
पर यदि एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाये तो किसी मर्यादाओं या सीमाओं की आवश्यकता ही नहीं होती | अर्थात जिस प्रकार ‘स्वीकार. किसी सम्बन्ध का देह है| क्या वैसे ही स्वतंत्रता किसी सम्बन्ध की आत्मा नहीं ?
स्वयं विचार कीजिये |
सभी की जीवन में ऐसा प्रसंग अवश्य आता है की सत्य कहने का निश्चय होता है ह्रदय में किन्तु मुख से सत्य निकल नहीं पाता | कोई भय मन को घेर लेता है|
किसी घटना अथवा किसी प्रसंग के बारे में बात करना या फिर स्वयं से कोई भूल हो जाए उसके बारे में कुछ बोलना क्या ये सत्य है ? नहीं, ये तो सिर्फ तथ्य है| अर्थात जैसा घटित हुआ था वैसा सिर्फ बोलना साधारण सी बात हुई| परन्तु कभी कभी उस तथ्य को बोलते हुए भी भय लगता है | कदाचित किसी दूसरे की भावनाओं का विचार आता है मन में| दूसरे को दुःख होगा ये भय भी शब्दों को रोकता है |
तो ये सत्य क्या है ? क्या हमने कभी विचार किया है | जब भय रहते हुए भी कोई तथ्य बोलता है तो वो सत्य कहलाता है | वास्तव सत्य कुछ और नहीं बल्कि निर्भयता का दूसरा रूप है | और निर्भय रहने का कोई क्षण नहीं होता| क्योंकि निर्भयता आत्मा का व्यवहार है| अर्थात क्या प्रत्येक क्षण सत्य बोलने का क्षण नहीं होता?
श्रेष्ठता का क्या अर्थ है ?
श्रेष्ठता का मतलब है दूसरों से ज्यादा ज्ञान प्राप्त करना| अर्थात महत्व इस बात का नहीं की आपने स्वयं कितना ज्ञान हासिल किया कीमत तो इस बात का है की हासिल किया हुआ ज्ञान दूसरों से कितना ज्यादा है ? अर्थात श्रेष्ठ बनने की चाहत ज्ञान की प्राप्ति को भी एक प्रतिस्पर्धा बना देती है और प्रतिस्पर्धा में जीत आखिरी कब होती है ?
कुछ ही क्षण के लिए तो श्रेष्ठ हुआ जा सकता है परन्तु सदैव् के लिए कोई श्रेष्ठ नहीं रह सकता है| और फिर वही अतृप्ति दुःख और संघर्ष जन्मता है किन्तु श्रेष्ठ बनने की चाहत के स्थान पर अगर उत्तम बनने की कोशिश करी जाये तो क्या होगा?
उत्तम का अर्थ है की जितना प्राप्त करने योग्य है ओ सब प्राप्त करना किसी से अधिक प्राप्त करने की इच्छा से नहीं मात्र आत्मा की तृप्ति हेतू कुछ प्राप्त करना| उत्तम के मार्ग पर किसी अन्य से स्पर्धा नहीं होती, स्वयं अपने आप से स्पर्धा होती है| अर्थात उत्तम बनने का प्रयत्न करने वाले को देर सबेर सार ज्ञान प्राप्त हो जाता है | बिना प्रयत्न के ही वो श्रेष्ठ बन जाता है| किन्तु जो श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करता है, वो श्रेष्ठ बने या न बने उत्तम कभी नहीं बन पाता |
सपनो और पूर्व आभासों के आधार पर हम भविष्य के सुख दुःख की कल्पना करते हैं| भविष्य के दुःख का कारण दूर करने के लिए हम आज योजना बनाते हैं | किन्तु कल के संकट को हमें आज में रखने से हमें लाभ मिलता है या हानि पहुँचती है | ये प्रश्न हम कभी नहीं पूछते |
सत्य यही है की संकट और उसका समाधान साथ साथ जन्म लेते हैं मनुष्य के लिए भी और ब्रह्माण्ड के लिए भी | नहीं ?
आप अपने बीते हुए समय को याद कीजिये, इतिहास को समझिये| आप फ़ौरन ही ये जान पाएंगे की जब कभी संकट उत्पन्न होता है तब तब उसका समाधान करने वाली शक्ति का भी जन्म होता है| यही तो संसार की रीति है ये ही सत्य है संकट ही शक्ति के पैदा होने की वजह है | प्रत्येक व्यक्ति जब संकट से निकलता है तो एक पग आगे बढ़ा होता है, अधिक चमकता है| आत्मविश्वास से अधिक भरा होता है न केवल अपने लिए अपितु विश्व के लिए भी|
क्या ये सत्य नहीं ?
वास्तव में संकट का जन्म है एक अवसर का जन्म, अपने आपको को बदलने का| अपने विचारों को ऊँचाई पर करने का अवसर अपनी आत्मा को बलवान और ज्ञानमंडित बनाने का | जो ये कर पाता है उसे कोई संकट नहीं होता किन्तु जो ये नहीं कर पाता वो तो स्वयं एक संकट है विश्व के लिए | विचार कीजिये |
कदाचित कोई घटना मानव के जीवन की हर योजना को चकनाचूर देती है और मनुष्य उस प्रहार को अपने जीवन का केंद्र बिंदु समझ बैठता है पर क्या भविष्य मानव की योजनाओं के आधार पर तैयार होते हैं ? नहीं
जिस प्रकार किसी ऊँचे पर्वत सर्वप्रथम चढ़ने वाला, उस पर्वत की तलाई में बैठकर जो योजना बनाता है क्या वही योजना उसे उस पर्वत की चोटी तक पहुंचाती है ? नहीं
वो जैसे जैसे ऊपर चढ़ता है वैसे वैसे यूज़ नई नई चुनौतियाँ नई नई विडंबनायें, नए नए अवरोध मिलते हैं| प्रत्येक पथ पर वो अपने अगले पथ का निर्णय करता है| प्रत्येक पथ पर उसे अपनी योजनाओं को बदलना पड़ता है| कहीं पुरानी योजना उसे खाईं में न धकेल दे वो पर्वत को अपने योग्य नहीं बना पाता | केवल स्वयं को पर्वत के योग्य बना सकता है |
क्यों जीवन के संग भी ऐसा ही नहीं ?
जब मनुष्य जीवन में किसी एक चुनौती को, एक अवरोध को अपने जीवन का केंद्र मान लेता है| अपने जीवन के गति को ही रोक देता है तो वो अपने जीवन में सफल नहीं बन पाता और नही सुख और शांति प्राप्त कर पाता है |
अर्थात जीवन को अपने योग्य बनाने के बदले अपने आपको जीवन के योग्य बनाना सफलता और सुख का एकमात्र मार्ग नहीं | स्वयं विचार कीजिये |
जीवन का हर क्षण निर्णय का क्षण होता है | प्रत्येक पग पर दूसरे पग के विषय में निर्णय करना ही पड़ता है और निर्णय अपना प्रभाव छोड़ जाता है | आज किये गए निर्णय भविष्य में सुख अथवा दुःख निर्मित करते हैं न केवल अपने लिए अपने परिवार के लिए भी , आने वाली पीढ़ियों के लिए भी |
जब कोई समस्या समक्ष आन खड़ी होती है तो मन व्यथित हो उठता है| असमंजस से भर जाता है| निर्णय का वो पल, युद्ध बन जाता है और मन बन जाता है रणभूमि| अधिकांश निर्णय हम परेशानी का समाधान करने के लिए नहीं, अपितु सिर्फ मन को शांत करने के लिए लेते हैं |
पर क्या कोई भागते हुए भोजन ग्रहण कर सकता है ? नहीं
तो क्या रणक्षेत्र में जूझता मन कोई योग्य निर्णय ले पायेगा ?
वास्तविक रूप में शांत मन से जब कोई व्यक्ति निर्णय करता है तो अपने लिए सुखदायी भविष्य का निर्माण करता है परन्तु स्वयं के मन को शांत करने के वास्ते जब कोई निर्णय लेता है तो वो व्यक्ति भविष्य में अपने लिए काँटो भरा वृक्ष लगाता है | स्वयं विचार कीजियेगा |